Saturday, September 12, 2009

Dadaji - Ashok Gupta

दादाजी

दादाजी और उनकी सायकल के पीछे
बच्चे दौड़ते थे,
झोपड़ी और बंगलेवालों के।
दादाजी की काली बड़ी देह,
दिनों पुरानी खिचड़ी सी दाढ़ी
और सीट के पीछे लटकती हुई
लम्बी लहराती कमीज़।
चौड़ा सफेद पायजामा पहने
वे पेडल मारते चले जाते,
उसी रास्ते,
दिन प्रतिदिन।

बच्चे खुशी से चीखते, चिल्लाते,
"दादाजी! दादाजी!"
और दूर दूर तक
उनका पीछा करते,
जब तक वे थक नहीं जाते,
और एक पैर पर सायकल टिकाकर,
अपनी जेब से रंग बिरंगी पपरमिंट
निकालकर बच्चों को देते।

उन्होंने फिर चलना शुरू ही किया होता,
अतृप्त, वे चीखते, "दादाजी! दादाजी!"
उन्हें चिढ़ाते हुए,
जब तक वे उनके घर से
बहुत दूर तक निकल नहीं जाते।

यह सब भूल गए
और बच्चे अपनी अपनी राह चले गए।
एक दिन अचानक मुझे दादाजी मिल गए,
एक पुरानी ढहती हुई झोपड़ी के सामने
चारपाई पर बैठे हुए।
मैं संकोच करता सा रुका,
"दा दादाजी," मैं हिचकिचाया।
उनके सीधी तरफ लकवा मार गया था
और वे मुझे सुन नहीं पाए।
अपना मुंह उनके कान के करीब लाकर
मैं कुछ ऊंचे से बोला, "दादाजी"

वे धीरे से रुकते रुकते
एक करवट मुड़े,
और एक लाल पपरमिंट
जेब से निकालकर
मेरे हाथ पर रख दी।

- अशोक गुप्ता


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