Friday, September 11, 2009

Shrihat Phool Pade Hain - Virendra Sharma

श्रीहत फूल पड़े हैं

अंगारों के घने ढेर पर
यद्यपि सभी खड़े हैं
किन्तु दम्भ भ्रम स्वार्थ द्वेषवश
फिर भी हठी खड़े हैं

क्षेत्र विभाजित हैं प्रभाव के
बंटी धारणा-धारा
वादों के भीषण विवाद में
बंटा विश्व है सारा
शक्ति संतुलन रूप बदलते
घिरता है अंधियारा
किंकर्त्तव्यविमूढ़ देखता
विवश मनुज बेचारा

झाड़ कंटीलों की बगिया में
श्रीहत फूल पड़े हैं
अंगारों के बने ढेर पर .....

वन के नियम चलें नगरी में
भ्रष्ट हो गये शासन
लघु-विशाल से आतंकित है
लुप्त हुआ अनुशासन
बली राष्ट्र मनवा लेता है
सब बातें निर्बल से
यदि विरोध कोई भी करता
चढ़ जाता दल बल से

न्याय व्यवस्थ ब्याज हेतु
बलशाली राष्ट्र लड़े हैं
अंगारों के बने ढेर पर .....

दीप टिमटिमाता आशा का
सन्धि वार्ता सुनकर
मतभेदों को सुलझाया है
प्रेमभाव से मिलकर
नियति मनुज की शान्ति प्रीति है
युद्ध विकृति दानव की
सुख से रहना, मिलकर बढ़ना
मूल प्रकृति मानव की

विश्वशान्ति संदेश हेतु फिर
खेत कपोत उड़े हैं
अंगारों के बने ढेर पर .....

- वीरेन्द्र शर्मा


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