Tuesday, August 18, 2009

Jeekar Dekh Liya - Shiv Bahadur Singh Bhadauriya

जीकर देख लिया

जीकर देख लिया
जीने में -
कितना मरना पड़ता है।
अपनी शर्तों पर जीने की
एक चाह सबमें रहती है।
किन्तु ज़िन्दगी अनुबन्धों के
अनचाहे आश्रय गहती है।
क्या क्या कहना
क्या क्या सुनना
क्या क्या करना पड़ता है
समझौतों की सुइयां मिलती,
धन के धागे भी मिल जाते,
सम्बन्धों के फटे वस्त्र तो
सिलने को हैं, सिल भी जाते,
सीवन
कौन, कहाँ कब उधड़े,
इतना डरना पड़ता है।
मेरी कौन विसात यहाँ तो
सन्यासी भी सांसत ढोते।
लाख अपरिग्रह के दर्पण हो
संग्रह के प्रतिबिम्ब संजोते,
कुटिया में
कोपीन कमण्डल
कुछ तो धरना पड़ता है।

- शिव बहादुर सिंह भदौरिया


1 comment:

dineshpandey40 said...

'अपनी शर्तों पर जीने की,
एक चाह सबमें रहती है!!!'
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अद्भुत!
पर सच है कि जिंदगी समझौतों में गुजरती हैं!
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अगर तुम मुसलमान हो तो मुसलमान रहते परमात्मा को न पा सकोगे। अगर तुम हिंदू हो तो हिंदू रहते हुए ही परमात्मा को न पा सकोगे।
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उठाइये भी दैरो-हरम की ये सबीलें
बढ़ते नहीं आगे जो गुजरते हैं इधर से।
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राम बोलो॥
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