पतझड़ की पगलाई धूप
भोर भई जो आँखें मींचे
तकिये को सिरहाने खींचे
लोट गई इक बार पीठ पर
ले लम्बी जम्हाई धूप
अनमन सी अलसाई धूप
पोंछ रात का बिखरा काजल
सूरज नीचे दबा था आंचल
खींच अलग हो दबे पैर से
देह आंचल सरकाई धूप
यौवन ज्यों सुलगाई धूप
फुदक फुदक खेले आंगन भर
खाने-खाने एक पांव पर
पत्ती-पत्ती आंख मिचौली
बचपन सी बौराई धूप
पतझड़ की पगलाई धूप
- मानोशी चटर्जी
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