Tuesday, August 11, 2009

Shaam Huyee Aur Tum Naheen Aaye - Manoshi Chatterjee

शाम हुई और तुम नहीं आये

आज फिर शाम हुई और तुम नहीं आये
आसमां की लाल बिंदी
छूने चली भौहें क्षितिज की
और कुछ झोंके हवा के
ढेरों भीगे पल ले आये
पर तुम नहीं आये

चल पड़ा ये मन अचानक
फिर उसी पेड़ के नीचे से गुज़रा
कुछ सूखे पत्ते पड़े थे नीचे
और एक पहचानी खुश्बू आ लिपटी
वैसा ही एक पत्ता कबसे मेरे
सपनों के पास रखा है
कभी रेत की सूखी आँधी में
जाने क्यों मचल उठता है
उड़ता है गोल गोल और 
उस खुश्बू से जा उलझता है
जैसे उलझा करते थे कभी
झूठी कहानियों पे हम भी
आज पत्ते क्यों चुपचाप पड़े हैं
कैसे उस खुश्बू को समझायें
शाम वही पर तुम नहीं आये

गुज़रा अभी मेरे पास से एक क्षण
हल्की सी दस्तक दे गया वो
गुनगुना रहा था वही धुन जिसपे
हम दोनों साथ चले थे कभी
कितने बेसुरे लगते थे तुम
मेरा सुर हँसता था तुम पर
आज भी वो ढुँढ रहा तुम्हें
अब कैसे उस सुर को समझायें
शाम हुई तुम क्यों नहीं आये

मानोशी चटर्जी


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